शहर की एक दुकान पर शाम को चाय पीते पीते चल कहीं चलते हैं भाई... "घाट पर चलें क्या?" "नही वहाँ भीड़ होगी, चलो नदी के किनारे चलते हैं जहाँ पिछली बार गए थे..." "वो जगह बहुत प्यारी है सुकून देती है और बस क्या चाहिए ऑफिस के बाद जब थक हार कर आओ तो ज़िन्दगी से क्या चाहिए..." "चलिए फिर चलते हैं वहीँ किनारे पर" "अरे सर कहाँ आज इस तरफ?" "जी भाई के साथ आया हूँ ये मुझे शहर दर्शन करवा रहा है जो मैंने पिछले 10 सालों से नही किया कभी..." "अरे बिल्कुल बिल्कुल तो कहाँ कहाँ घूम लिए आप..." 'कहाँ जाएं शाम को शोर से ज़्यादा सुकून चाहिए तो यहाँ पर हैं..." "ओहो गिटार...'' "मेरा सपना जी रहे हो दोस्त लगे रहो और प्यार बांटते रहो" "भैया घूमना नही है क्या?" "अरे बैठो अब 8:30 हुआ है 9:30 तक चलेंगे मैं अब कहीँ नही जा रहा।" गिटार लेकर शुरू हुई कहानी गीतों तक जाती है और फिर समेट लाती है कुछ कहानी, बनने बिखरने सवरने और निखरने की... कहने को तो बस एक छोटा सा वाद्य यंत्र है जिसे हम देसी भाषा मे झुनझुना बो...
मुझे अपने घर से बेघर किया जा रहा है... उन्हें भी अपना कह कर घर किया जा रहा है... वो हाँथ में गुलदस्ता लिए बाहर खड़े हैं... उन्हें भी इस तरफ दाख़िल किया जा रहा है... कोई सफ़ेदी लिए और कद में ऊँचा सा मिला... सभी को उसके सफेद रंग में शामिल किया जा रहा है... ये नक़ाब-पोशी और मुँह छिपाई सब में... मुझे भी लगता है यहाँ धोखा दिया जा रहा है... जब घर लौट आओ तो मुझसे मिलने भी आना... यहाँ से घर को सफ़र और सफ़र को मंज़िल किया जा रहा है।।।
उधड़ती सियाही बस पन्नो पर ठहरने के लिए और वक़्त के साथ खुद को धुँधला होने से बचा ही रही थी, कि तभी पहाडों पर सूरज ढलने को हो चला था... चरवाहे अपने जानवरों को पहाडों से नीचे ला रहे थे अपने अपने घरों को लौट रहे थे... एक एक कर के पहाड़ दिए की रोशनी से घरों को और पहाडों को ऐसे रोशन कर रहे थे कि दूर से देखने पर ये लग रहा था कि कुछ तारे अभी से बस शाम से मिलने को रोशन हुए हैं... यहाँ की ठंडी हवा में सिहरन तो थी पर एक सुकून भी था जो अज़ब तरह से मन को तरंगित कर रहा था... छोटे कमरे के घर अब घर से ज्यादा एक आरामदेह बिस्तर हो चले थे... अँगीठी जो जल रही थी हल्के धुँए के साथ रात के खाने के साथ बस ये उस कमरे की गर्माहट को बरकरार रख रही थी... कुछ दूर पर कहीँ से कोई आवाज़ किसी नदी के किनारे से और जंगलो से इतनी साफ और निर्मल सुनाई दे रही थी जैसे बस इसको बजाने वाला बस यही धुन बजाते जाए और ये शाम कभी भी खत्म ना हो... कुछ महसूस हुआ नया सा ना कि पहाड़ो की शाम शायद ऐसी ही होती है...इतनी ही खूबसूरत और इतनी ही सुरीली... एक कमरा एक अँगीठी थोड़ी सी आग और कुछ मुट्ठी सर्दी... वो लोग जो पहाड़ पर जा नही पाते वो रातों म...
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