दूसरा घर

उधड़ती सियाही बस पन्नो पर ठहरने के लिए और वक़्त के साथ खुद को धुँधला होने से बचा ही रही थी, कि तभी पहाडों पर सूरज ढलने को हो चला था...

चरवाहे अपने जानवरों को पहाडों से नीचे ला रहे थे अपने अपने घरों को लौट रहे थे...

एक एक कर के पहाड़ दिए की रोशनी से घरों को और पहाडों  को ऐसे रोशन कर रहे थे कि दूर से देखने पर ये लग रहा था कि कुछ तारे अभी से बस शाम से मिलने को रोशन हुए हैं...

यहाँ की ठंडी हवा में सिहरन तो थी पर एक सुकून भी था जो अज़ब तरह से मन को तरंगित कर रहा था...

छोटे कमरे के घर अब घर से ज्यादा एक आरामदेह बिस्तर हो चले थे...

अँगीठी जो जल रही थी हल्के धुँए के साथ रात के खाने के साथ बस ये उस कमरे की गर्माहट को बरकरार रख रही थी...

कुछ दूर पर कहीँ से कोई आवाज़ किसी नदी के किनारे से और जंगलो से इतनी साफ और निर्मल सुनाई दे रही थी जैसे बस इसको बजाने वाला बस यही धुन बजाते जाए और ये शाम कभी भी खत्म ना हो...

कुछ महसूस हुआ नया सा ना कि पहाड़ो की शाम शायद ऐसी ही होती है...इतनी ही खूबसूरत और इतनी ही सुरीली...
एक कमरा एक अँगीठी थोड़ी सी आग और कुछ मुट्ठी सर्दी...

वो लोग जो पहाड़ पर जा नही पाते वो रातों में ऐसे ही किस्से गढ़ते हैं...
कान में इयरफोन लगा कर और महसूस करते हैं खुद को पहाड़ों में कुछ ऐसे गीत के साथ...

या तो हरिहरन का "तू ही रे, तू ही रे, तेरे बिना मैं कैसे जियूँ"
या फिर सलमान इलाही का " मेरा दिल कहीँ दूर पहाड़ों में खो गया"
और नही तो सुनीत रावत का "बेडूपाको बार मासा"।।।
 

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