सहर और यादें
रात बस कुछ अभी अपने रंग से रंग ही रही थी कि, कुछ शोर से सुमित की आँख खुल गयी...
पूरे दिन की तमाम थकान के बाद उसे ले-देकर ये बिस्तर समझ आता था...
अपने दोस्तों में वो कहता रहता था कि वो बस 5000 रुपये उस घर में बस सोने के लिए देता है, कभी रुक तो पाता नही है,
मकान मालिक भी शिकायत नही करता क्योंकि उसे वक़्त पर किराया मिल जाता है और फिर जब सोने ही जाना है तो क्या बोले कोई...
आँख खुली तो सुमित ने घड़ी की ओर देखा तो क़रीब 2 बज रहा था और बाहर जाकर देखा तो शोर के नाम पर गली में बस कुत्ते भौंक रहे थे...
ये शोर जिस से वो जगा था "शायद वहम होगा उसका"
आँख खुल चुकी है अब बिस्तर पर वापस आकर लेट तो गया पर नींद नही थी...सिगरेट की डिब्बी उठाई तो वो भी खाली थी, कुछ पन्ने पास पड़ी किताब के पलटे और फिर जब उसमे भी मन नही लगा तो वो भी बंद कर दी...
कमरे में लगे पँखे को देखने और इधर उधर बिखरे सामान को समेटने से फुरसत मिले तब कुछ नया सोचा जाए...
कमरे को देखा तो बस ये एहसास हुआ कि ये बस सुमित के लिए बस सोने भर की जगह नही है एक यादगार सफर है...
हर दीवार से उसका कुछ न कुछ नाता रहा है...गणित के सूत्र से लेकर न्यूटन के नियम तक इस दीवार पर छप चुके थे एक तरफ दुनिया का मायावी नक्शा और तरह तरह के मायाजाल ये कमरा देख चुका था...
कभी यहाँ पर ज़मीन पर बिस्तर लगता था और अब बिस्तर हैं पर और ये साथी दीवारे हैं...
गुलज़ार और जगजीत सिंह साहब से लेकर अरिजीत सिंह सब यहाँ मिलने आये हैं कभी ना कभी हर नए और पुराने गीत के साथ...
अब दीवारों को क्या सुनाये तो नए इयरफोन लिए हैं अकेले में सुनने को...नींद तो आ नही रही थी...
चलो रात का वक़्त भी है...गुलज़ार साहब की नज़्म सुनते हैं....
"दिखाई देते हैं इन लकीरों में साये कोई"
"मगर बुलाने से वक़्त लौटे ना आये कोई"
"मेरे महल्ले का आसमाँ सूना हो गया है"
"पतंग उड़ाए फ़लक़ पे पेंचे लड़ाये कोई"
"कुँए पर रक्खी हुईं हैं कांसे की कलसियाँ..."
"पर गुलेल से आटे वाले छर्रे बजाए कोई..."
"वो ज़र्द पत्ते जो पेड़ से टूट कर गिरे थे..."
"कहाँ गए बहते पानियों में बुलाये कोई..."
"ज़ईफ़ बरगद के हाँथ में राशां आ गया है..."
"जटाएं आँखों पर गिर रही हैं उठाये कोई..."
"मज़ार पर खोल कर गिरेबाँ दुआएँ मांगे कोई..."
"जो आये अब के लौट कर ना जाये कोई..."
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